थर्मल इंजीनियरिंग क्या है?
‘थर्मल पावर स्टेशन’,
जिन्हें ऊष्मीय शक्ति संयंत्र या ताप विद्युत केन्द्र के
नाम से भी जाना जाता है, ऐसे विद्युत उत्पादन संयंत्र होते
हैं, जिनमें प्रमुख टरबाइनें भाप से चलाई जाती हैं और यह भाप कोयला, गैस
इत्यादि को जलाकर पानी को गर्म करके प्राप्त की जाती है। पानी गर्म करने के लिए ईंधन का
प्रयोग किया जाता है, जिससे उच्च दाब पर भाप बनती है और बिजली पैदा करने के लिए इसी भाप से टरबाइनें चलाई जाती हैं। हमारे जीवन में थर्मल
इंजीनियरिंग के महत्व को समझाने के लिए प्रतिवर्ष 24 जुलाई को ‘राष्ट्रीय थर्मल इंजीनियरिंग
दिवस’ मनाया जाता है। यह भी जान लें कि थर्मल इंजीनियरिंग आखिर है क्या? यह
मैकेनिकल इंजीनियरिंग का ही एक ऐसा हिस्सा है, जिसमें ऊष्मीय ऊर्जा का इस्तेमाल किया
जाता है। घरों तथा गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाले एयरकंडीशनर तथा रेफ्रिजरेटरों में
इसी इंजीनियरिंग का इस्तेमाल होता है। थर्मल इंजीनियरिंग के जरिये इंजीनियर ऊष्मा को
अलग-अलग माध्यमों में उपयोग करने के अलावा ऊष्मीय ऊर्जा को दूसरी ऊर्जा में भी परिवर्तित
कर सकते हैं। थर्मल इंजीनियरिंग वास्तव में बंद या खुले वातावरण में वस्तुओं को गर्म
या ठंडा रखने की प्रक्रिया है और थर्मल इंजीनियर ऊष्मीय ऊर्जा को केमिकल, मैकेनिकल
या विद्युतीय ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए विभिन्न प्रकार की मशीनें तैयार करते
हैं, जिनके जरिये वे ऊष्मा को नियंत्रित करते हैं। हमारे घरों या दफ्तरों में इस्तेमाल
होने वाली बिजली इसी ऊष्मीय ऊर्जा से बनती है और यह बिजली बनाने का काम करते हैं थर्मल
पावर स्टेशन।
ताप विद्युत संयंत्र कैसे काम करता है? |
थर्मल पावर स्टेशनों में ऊष्मीय ऊर्जा को बिजली में
परिवर्तित किया जाता है और इसके लिए भाप से चलने वाली टरबाइनों का इस्तेमाल किया जाता
है। भाप बनाने के लिए पानी को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है, जिसके लिए कोयला,
सोलर हीट, न्यूक्लियर हीट, कचरा तथा बायो ईंधन उपयोग किया जाता है। दुनिया के कई देशों में अभी भी बिजली पैदा करने के लिए भाप से चलने वाली
टरबाइनों का उपयोग किया जाता है किन्तु पर्यावरणीय खतरों को देखते हुए अब धीरे-धीरे
बिजली पैदा करने के लिए सौर ऊर्जा तथा पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा के अन्य स्रोतों
को ही महत्व दिया जाने लगा है। भारत में इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए जा रहे हैं।
पिछले दिनों रीवा में 750 मेगावाट क्षमता की अत्याधुनिक मेगा सौर ऊर्जा
परियोजना का उद्घाटन भी किया गया। इसके अलावा पहले से ही हजारों मेगावाट के कुछ सोलर
प्लांट पहले से ही ऊर्जा उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। दरअसल थर्मल पावर स्टेशनों में भाप पैदा करने के लिए कोयला जलाने से पर्यावरण
को अपूरणीय क्षति पहुंचती है क्योंकि इस प्रक्रिया में निकलने वाली हानिकारक गैसें
हवा में मिलकर पर्यावरण को बुरी तरह प्रदूषित करती हैं, साथ ही कोयला या अपशिष्ट जलाने
के बाद बचने वाले अवशेषों के निबटारे की भी बड़ी चुनौती मौजूद रहती है। हालांकि भारत में थर्मल पावर स्टेशनों में बिजली पैदा करने के लिए कोयले
के अलावा ऊर्जा के अन्य स्रोतों का भी इस्तेमाल किया जाता है किन्तु अधिकांश बिजली
कोयले के इस्तेमाल से ही पैदा होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार
कोयले को जलाया जाना और इससे होने वाली गर्मी, पारे के प्रदूषण का मुख्य कारण है। हिन्दी
अकादमी दिल्ली के आर्थिक सहयोग से इसी वर्ष पर्यावरण एवं प्रदूषण पर प्रकाशित हुई पुस्तक
‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में बताया गया है कि विश्वभर में करीब 40 फीसदी बिजली कोयले
से ही प्राप्त होती है जबकि देश में करीब 60 फीसदी बिजली कोयले से, 16.1 फीसदी अक्षय
ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा तथा बायो गैस से, 14 फीसदी पानी
से, 8 फीसदी गैस से, 1.8 फीसदी न्यूक्लियर ऊर्जा से तथा 0.3 फीसदी डीजल से पैदा होती
है। वैसे बिजली पैदा करने के लिए भले ही ऊर्जा के किसी भी स्रोत का इस्तेमाल
किया जाए, हरेक थर्मल पावर प्लांट में इसके लिए बॉयलर का इस्तेमाल होता है, जिसमें
ईंधन को जलाकर ऊष्मीय ऊर्जा पैदा की जाती है, जिससे पानी को गर्म कर भाप बनाई जाती
है, जो टरबाइनों को चलाने में इस्तेमाल होती है। आज दुनियाभर में वायु प्रदूषण एक
बड़े स्वास्थ्य संकट के रूप में उभर रहा है और इस समस्या के लिए थर्मल पावर प्लांटों
से निकलने वाला उत्सर्जन भी एक बड़ा कारण है। इस समस्या से निपटने के लिए एक दशक से
भी अधिक समय से उत्सर्जन मानकों को पूरा करने और नए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को
रोककर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट
भी इन उत्सर्जन मानकों को पूरा करने के लिए समय सीमा निर्धारित करता रहा है किन्तु
थर्मल पावर प्लांट के लिए उत्सर्जन मानकों को लागू करने का मामला वर्षों से अधर में
लटका है। पर्यावरण पर कार्यरत कुछ संस्थाओं द्वारा मांग की जा रही है कि पर्यावरण मंत्रालय उत्सर्जन
मानकों का पालन कराते हुए थर्मल पावर प्लांटों को प्रदूषण के लिए उत्तरदायी बनाए और
अक्षय ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल करने के लिए नए थर्मल पावर प्लांटों का निर्माण रोका
जाए। माना जा रहा है कि उत्सर्जन मानकों का पालन करने में देरी के चलते सालभर
में 70 हजार से ज्यादा मौतें समय पूर्व हो रही हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्यरत संस्था ग्रीनपीस के अनुसार अगर उत्सर्जन
मानकों को समय से लागू किया जाता तो सल्फर डाई ऑक्साइड में 48 फीसदी, नाइट्रोडन डाई
ऑक्साइड में 48 फीसदी और पीएम उत्सर्जन में 40 फीसदी तक की कमी की जा सकती थी, जिससे
समय पूर्व हो रही इन मौतों से बचा जा सकता था। थर्मल पावर प्लांटों में बिजली बनाए
जाने के लिए कोयला जलाने के दौरान उससे बनी राख का 10 फीसदी से भी अधिक हिस्सा चिमनियों
के जरिये धुएं के साथ ही वातावरण में घुल जाता है, जो गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का
कारण बनता है।