वायरसजन्य पांच बिमारियों के प्रकोप से बदल गया इतिहास
कोरोना
वायरस का प्रकोप दुनिया के करोड़ों लोगों का जीवन एक नाटकीय अंदाज़ में बदल रहा
है. वो जिस तरह के
रहन-सहन के आदी रहे हैं, उसमें बदलाव आ
रहा है. हालांकि, ये बदलाव
फ़िलहाल तो वक़्ती नज़र आ रहे हैं. लेकिन, तारीख़ के पन्ने महामारियों के इतिहास बदलने की
मिसालों से भरे पड़े हैं. बीमारियों की वजह से सल्तनतें तबाह हो गईं. साम्राज्यवाद का विस्तार भी हुआ और
इसका दायरा सिमटा भी. और यहां तक कि दुनिया के मौसम में भी इन बीमारियों के कारण
उतार-चढ़ाव आते देखा गया. आपको महामारियों के इतिहास बदलने की कुछ मिसालें
बताते हैं- ब्लैक डेथ और
पश्चिम यूरोप का शक्तिशाली उदय चौदहवीं सदी के पांचवें और छठें दशक में प्लेग
की महामारी ने यूरोप में मौत का दिल दहलाने वाला तांडव किया था. इस महामारी के
क़हर से यूरोप की एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गई थी. लेकिन दसियों लाख
जानें लेने वाली ये महामारी, कई यूरोपीय देशों के लिए वरदान साबित हुई. अपने नागरिकों की इतनी बड़ी तादाद
में मौत के बाद बहुत से देशों ने खुद को हर लिहाज़ से इतना आगे बढ़ाया कि वो आज
दुनिया के अमीर मुल्कों में शुमार होते हैं. ब्लैक डेथ यानी ब्यूबोनिक प्लेग से
इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मौत के कारण, खेतों में काम करने के लिए उपलब्ध लोगों की
संख्या बहुत कम हो गई. इससे ज़मींदारों को दिक़्क़त होने लगी. जो किसान बचे थे उनके पास
ज़मींदारों से सौदेबाज़ी की क्षमता बढ़ गई. इसका नतीजा ये हुआ कि पश्चिमी यूरोप के
देशों की सामंतवादी व्यवस्था टूटने लगी. जो किसान, अपना राजस्व भरने के लिए ज़मींदारों के खेतों
में काम करने को मजबूर थे, वो ज़मींदारों
की क़ैद से आज़ाद होने लगे. इस बदलाव ने मज़दूरी पर काम करने की प्रथा को
जन्म दिया. जिसके कारण पश्चिमी यूरोप ज़्यादा आधुनिक, व्यापारिक और नक़दी आधारित
अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ चला. चूंकि अब ज़मींदारों के लिए मज़दूरों की मज़दूरी देना
महंगा पड़ रहा था. समुद्री
यात्राओं की शुरुआत इसी मजबूरी ने उन्हें ऐसी तकनीक में निवेश करने के लिए बाध्य किया, जिसमें ख़र्च कम लगे. मज़दूरों की कम
ज़रूरत हो और काम पूरा हो जाए. ताकि लागत कम कर के पैसा बचाया जा सके. कहा तो ये
भी जाता है कि यहीं से पश्चिमी यूरोपीय देशों ने साम्राज्यवाद की शुरुआत की. यूरोप
के लोगों ने लंबी समुद्री यात्राएं शुरू कर दीं. उससे पहले लंबा समुद्री सफ़र और
अन्वेषण, महंगा और
ख़तरनाक माना जाता था. लेकिन, प्लेग से इतनी बड़ी तादाद में लोगों की मौत के बाद, ये लंबा समुद्री सफ़र लोगों को कम
जोखिम भरा लगने लगा. यूरोप के लोग अपने यहां प्लेग से इतनी मौतें देख चुके थे कि
उनके मन से जान जाने का डर निकल गया था. और वो नई दुनिया की तलाश में कहीं भी जाने से को
तैयार थे. जब यूरोप के लोग अन्य इलाक़ों में गए तो उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था को और
बढ़ाने का मौक़ा मिला. फिर उन्होंने उपनिवेशवाद भी शुरू कर दिया. लिहाज़ा कहा जा
सकता है कि प्लेग के बाद पश्चिमी यूरोप में नई ऊर्जा आई. और अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण ने
उन्हें नई तकनीक विकसित करने को मजबूर किया. विदेशों में जिस पैमाने पर उन्होंने
अपने उपनिवेश बनाए और वहां से जो कमाई की, उसके बूते ही पश्चिम यूरोपीय देश दुनिया में
ताक़तवर बनकर उभरे. आज भी उसी तरक़्क़ी के बूते पश्चिम यूरोप के बहुत से देश
दुनिया में अपना दबदबा बनाए हुए हैं. जो बीमारियां उपनिवेशवादी अपने साथ लेकर अमरीका
पहुंचे उनमें सबसे बड़ी बीमारी थी चेचक अमरीका में चेचक से मौत और जलवायु परिवर्तन यूरोपीय देशों ने पंद्रहवीं सदी के
अंत तक अमेरिकी महाद्वीपों में उपनिवेशवाद का प्रसार करते हुए अपना साम्राज्य
स्थापित कर लिया था. अपने-अपने साम्राज्य के विस्तार के चक्कर में यूरोपीय ताक़तों
ने यहां इतने लोगों को मारा कि इससे दुनिया की आब-ओ-हवा बदल गई होगी. ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़
लंदन के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि यूरोप के विस्तार के बाद अमेरिका की
क़रीब छह करोड़ (जो उस वक़्त दुनिया की कुल आबादी का दस फ़ीसद हिस्सा थी) की आबादी
केवल एक सदी में घट कर महज़ साठ लाख रह गई. अमरीका में यूरोपीय उपनिवेश स्थापित होने के बाद
के बाद इन इलाक़ों में होने वाली अधिकतर मौतों के लिए वो बीमारियां ज़िम्मेदार थीं, जो ये उपनिवेशवादी अपने साथ लेकर
अमरीका पहुंचे. इनमें सबसे बड़ी बीमारी थी चेचक. अन्य बीमारियों में ख़सरा, हैज़ा, मलेरिया, प्लेग, काली खांसी, और टाइफ़स भी शामिल थीं, जिन्होंने करोड़ों लोगों की जान ले
ली. इन बीमारियों की वजह से इन इलाक़ों में लोगों ने बेपनाह दर्द झेला. बड़े
पैमाने पर जान का भी नुक़सान हुआ. और इसका नतीजा सारी दुनिया को भुगतना पड़ा. इन बीमारियों की वजह से करोड़ों
लोगों की मौत हुई दुनिया के
तापमान में कमी आबादी कम हो
जाने की वजह से खेती कम हो गई. और एक बड़ा इलाक़ा ख़ुद ही क़ुदरती तौर पर दोबारा
बड़े चरागाहों और जंगलों में तब्दील हो गया. एक अंदाज़े के मुताबिक़, इस कारण से अमरीकी महाद्वीपों में
क़रीब 5 लाख 60 हज़ार वर्ग किलोमीटर का इलाक़ा इसी
तरह जंगलों में बदल गया था. ये इलाक़ा केन्या या फ्रांस के क्षेत्रफल के बराबर
है. इतने बड़े पैमाने पर पेड़-पौधे उग आने की वजह से वातावरण में कार्बन डाई
ऑक्साइड का स्तर नीचे आ गया (ये तथ्य अंटार्कटिका के बर्फ़ के नमूनों में दर्ज पाए
गए हैं). और दुनिया के बहुत सारे हिस्सों के तापमान में कमी आ गई. वैज्ञानिक मानते हैं कि अमेरिका में
बढ़ी हरियाली के साथ, बड़े पैमाने पर
ज्वालामुखियों के विस्फोट और सूरज की गतिविधियों में कमी के चलते भी दुनिया के
तापमान में कमी आई. और, दुनिया एक ऐसे
दौर की तरफ़ बढ़ चली गई जिसे हम 'लिटिल आईस एज' या 'लघु हिमयुग' के नाम से जानते हैं. विडम्बना ये है कि अमेरिका में जो
यूरोपीय देश अपने साम्राज्य के विस्तार के साथ ये तबाही ले आए थे, उसके कारण हुए जलवायु परिवर्तन का
शिकार भी सबसे ज़्यादा यूरोप ही हुआ था. यहां बड़े पैमाने पर फ़सलें तबाह हुई थीं
और यूरोप को सूखे जैसे हालात का सामना करना पड़ा था. येलो फ़ीवर और फ़्रांस के ख़िलाफ़
हैती की बग़ावत कैरेबियाई देश
हैती में एक महामारी के प्रकोप ने उस समय की बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त फ्रांस को
उत्तरी अमरीका से बाहर करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. और इसी के बाद अमरीका
का एक बड़े और ताक़तवर देश के तौर पर विकास हुआ था. और वो महाशक्ति बनने की दिशा
में आगे बढ़ चला था. 1801 में कैरेबियाई
देश हैती में यूरोप की औपनिवेशिक ताक़तों के ख़िलाफ़ यहां के बहुत से ग़ुलामों ने
बग़ावत कर दी. एक के बाद एक कई बग़ावतों के बाद आख़िरकार तुसैंत लोवरतूर का
फ़्रांस के साथ समझौता हो गया और वो हैती का शासक बन गया. उधर, फ्रांस में नेपोलियन बोनापार्ट ने ख़ुद को आजीवन
देश का शासक घोषित कर दिया था. नेपोलियन ने पूरे हैती द्वीप पर अपना क़ब्ज़ा जमाने
की सोचा. लिहाज़ा उसने हैती पर कब्ज़ा जमाने के लिए दसियों हज़ार सैनिकों को वहां
लड़ने के लिए भेज दिया. फ़्रांस से आए ये लड़ाकू जंग के मैदान में तो बहुत बहादुर
साबित हुए. हैती में मिली
हार के बाद नेपोलियन ने उत्तरी अमरीका में फ्रांस के औपनिवेशिक विस्तार के अपने
ख़्वाब को भी तिलांजलि दे दी
फ्रांस का औपनिवेशिक विस्तार लेकिन पीत ज्वर
या येलो फ़ीवर के प्रकोप से ख़ुद नहीं बचा पाए. एक अंदाज़े के मुताबिक़ फ़्रांस के
क़रीब पचास हज़ार सैनिक, अधिकारी, डॉक्टर इस बुखार के चपेट में आकर मौत के मुंह में समा गए. हैती पर
क़ब्ज़े के लिए गए फ्रांसीसी सैनिकों में से महज़ तीन हज़ार लोग ही फ़्रांस लौट
सके. यूरोप के सैनिकों के पास क़ुदरती तौर पर इस
बुख़ार को झेलने की वो ताक़त नहीं थी जो अफ़्रीकी मूल के लोगों में थी. इस हार ने
नेपोलियन को ना सिर्फ़ हैती का उपनिवेश छोड़ने पर मजबूर किया. बल्कि, नेपोलियन ने उत्तरी अमरीका में फ्रांस के औपनिवेशिक विस्तार के अपने
ख़्वाब को भी तिलांजलि दे दी. हैती पर
क़ब्ज़े के नाकाम अभियान के दो साल बाद ही. फ़्रांस के लीडर ने 21 लाख मिलियन वर्ग किलोमीटर इलाक़े वाले कैरेबियाई द्वीप को अमरीका की
नई सरकार सरकार को बेच दी. इसे लुईसियाना पर्चेज़ के नाम से भी जाना जाता है.
जिसके बाद नए देश अमरीका का इलाक़ा बढ़ कर दोगुना हो गया. राइंडरपेस्ट नाम के वायरस ने अफ़्रीक़ा में लगभग 90 फ़ीसद पालतू जानवरों को ख़त्म कर दिया अफ़्रीक़ा में जानवरों की
महामारी अफ़्रीक़ा में
पशुओं के बीच फैली एक महामारी ने यूरोपीय देशों को यहां अपना साम्राज्य बढ़ाने
बढ़ाने में मदद की. हालांकि ये ऐसा प्रकोप नहीं था, जिसमें सीधे
इंसान की मौत होती थी. लेकिन, इस महामारी ने
जानवरों को बड़े पैमाने पर अपना शिकार बनाया था. 1888 और 1897 के दरमियान राइंडरपेस्ट नाम के वायरस ने अफ़्रीक़ा में लगभग 90 फ़ीसद पालतू जानवरों को ख़त्म कर दिया. इसे जानवरों में होने वाला प्लेग
भी कहा जाता है. इतने बड़े पैमाने पर जानवरों की मौत से हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका, पश्चिमी अफ्रीका और दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका में रहने वाले बहुत से
समुदायों पर क़यामत सी आ गई. यहां के समाज
में बिखराव आ गया. भुखमरी फैल गई. चूंकि लोग खेती के लिए बैलों का इस्तेमाल करते
थे. तो, जब बैल ही नहीं रहे तो खेती भी ख़त्म होने लगी. अफ़्रीक़ा के ऐसे बदतर
हालात ने उन्नीसवीं सदी के आख़िर में यूरोपीय देशों के लिए अफ्रीका के एक बड़े
हिस्से पर अपने उपनिवेश स्थापित करने का माहौल तैयार कर दिया. 1884 से 1885 के बीच जर्मनी
की राजधानी बर्लिन में यूरोपीय देशों का एक सम्मेलन चला यूरोपीय ताक़तों का
नियंत्रण हालांकि, यूरोपीय देशों ने अफ्रीका में अपना साम्राज्य स्थापित करने की योजना
राइंडरपेस्ट वायरस का प्रकोप शुरू होने से कई साल पहले ही बना ली थी. 1884 से 1885 के बीच जर्मनी
की राजधानी बर्लिन में यूरोपीय देशों का एक सम्मेलन चला. जिसमें यूरोप के 14 देश, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, बेल्जियम, पुर्तगाल और
इटली ने हिस्सा लिया था. इन देशों ने अफ़्रीक़ा में अपने-अपने उपनिवेश स्थापित
करने को लेकर सौदेबाज़ी की थी. इसके बाद ही तय हुआ कि अफ्रीका के किस हिस्से में
कौन सा देश अपना साम्राज्य स्थापित करेगा. 1870 के दशक में
अफ़्रीक़ा का महज़ 10 फ़ीसद हिस्सा
यूरोपीय ताक़तों के नियंत्रण में था. लेकिन वर्ष 1900 तक अफ्रीका के
90 फ़ीसद हिस्से पर औपनिवेशिक ताक़तों का नियंत्रण हो गया था. यूरोपीय
देशों को अफ्रीका की ज़मीनें हड़पने में राइंडरपेस्ट वायरस के प्रकोप से भी काफ़ी
मदद मिली. इटली ने 1890 में इरीट्रिया में साम्राज्य विस्तार शुरू किया था. उसे इस काम में
राइंडरपेस्ट की वजह से पड़े अकाल से भी मदद मिली, जिसके चलते
इथियोपिया की एक तिहाई आबादी मौत के मुंह में समा गई थी. प्लेग का प्रकोप और चीन में मिंग राजवंश का पतन संयुक्त राष्ट्र की हिस्ट्री ऑफ अफ्रीका में अफ्रीका महाद्वीप में
उपनिवेशवाद का ज़िक्र इस तरह से किया गया है, 'अफ्रीका में
साम्राज्यवाद ने उस वक़्त हमला बोला, जब वहां के लोग
पहले ही एक बड़ा आर्थिक संकट झेल रहे थे. और साम्राज्यवाद के साथ ही आयी उससे
जुड़ी हुई अन्य बुराइयां.' चीन में मिंग
राजवंश ने लगभग तीन सदी तक राज किया था. अपने पूरे शासन काल में इस राजवंश ने
पूर्वी एशिया के एक बड़े इलाक़े पर अपना ज़बरदस्त सियासी और सांस्कृतिक प्रभाव
छोड़ा था. लेकिन प्लेग की वजह से इतने ताक़तवर राजवंश का अंत बहुत विनाशकारी रहा. लेकिन, एक महामारी ने
इस बेहद ताक़तवर राजवंश के पतन में अहम भूमिका अदा की. वर्ष 1641 में उत्तरी चीन में प्लेग जैसी महामारी ने हमला बोला, जिसके कारण बड़ी संख्या में लोगों की जान चलीगई थी. कुछ इलाक़ो में तो
प्लेग की वजह से 20 से 40 फ़ीसद तक आबादी ख़त्म हो गई थी. चीन में प्लेग ने उस वक़्त दस्तक दी थी, जब वो सूखे और
टिड्डियों के प्रकोप से जूझ रहा था. फ़सलें तबाह हो चुकी थी. लोगों के पास खाने को
अनाज नहीं था. हालात इतने बिगड़ गए थे कि जब लोगों के पास खाने को कुछ नहीं होता
था, तो, वो प्लेग, भुखमरी और सूखे
से मर चुके लोगों की लाश को ही नोच खाने लगे थे. चीन की दीवार बनाने का अधिकतर काम मिंग शासनकाल में ही हुआ चीन का मिंग राजवंश चीन में ये
संकट, मलेरिया और प्लेग जैसी बीमारियां एक साथ फैलने की वजह से पैदा हुआ था.
ये भी हो सकता है कि चीन में ये बीमारियां उत्तर से आने वाले आक्रमणकारियों के साथ
यहां आई हों और इन्हीं आक्रमणकारियों ने चीन से मिंग राजवंश को पूरी तरह उखाड़
फेंका. और फिर अपनी बादशाहत क़ायम की और सदियों तक चीन
पर राज किया. शुरुआत में तो चीन पर ये हमले डाकुओं और लुटेरों ने ही शुरु किए थे.
लेकिन बाद में मंचूरिया के क़िंग वंश के राजाओं ने संगठित तरीक़े से चीन पर आक्रमण
किया. और मिंग राजवंश को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया. फिर उन्होंने ख़ुद को चीन का नया शासक घोषित कर दिया. क़िंग सल्तनत का
कई सदियों तक चीन पर राज रहा था. वैसे तो चीन के मिंग राजवंश के ख़ात्मे के लिए
सूखा और भ्रष्टाचार जैसे कारक भी ज़िम्मेदार थे. लेकिन भयानक बीमारियों और
महामारियों के प्रकोप ने भी इसके ख़ात्मे में अहम रोल निभाया.