पृथ्वी मानव का एकमात्र
घर
प्रकृति मानव की चिरसंगिनी एवं इस सृष्टि के सृजन काल के बाद से ही मानव एवं प्रकृति का सम्बंध साहचर्यबोध एवं परस्पर स्नेह से आप्लावित रहा है।
नदी-झरने ,तालाब, लता - पादप कुंज , प्रकृति के सौन्दर्य को निखारते रहे हैं जिनमें जल और जंगल, प्रकाश की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
प्रकृति की निर्मलता एवं मनोरम वातावरण की गोद में मानव ने उन्नति के अनेकों कीर्तिमान रचे जिससे उसका जीवन सुखकर एवं समृद्धशाली हुआ।
जिसके क्रीड़ांगन में पशु-पक्षियों के कलरव ध्वनियों एवं क्रीड़ाओं के आनंद से मानसिक शांति एवं ह्रदय प्रफुल्लित होता रहा है।
प्रकृति ने मानव को प्राणवायु के रूप में जीवन रूपी अमोघ अस्त्र दिए एवं उदर पोषण से लेकर समस्त प्रकार की सुविधाएं दी जिससे मानव रूपी प्रजाति का अस्तित्व बरकरार रह सके किन्तु मनुष्य लगातार यह भूलता जा रहा कि यह प्रकृति उसकी जागीर नहीं है ,बल्कि प्रकृति की उस पर अनुकम्पा है कि उसके विशालकाय वैविध्यपूर्ण आँगन में उसे मनुष्य होने का बोध हुआ और वह अन्य जीवधारियों के मुकाबले इस पायदान पर खड़ा है।
भारतीय धर्म दर्शन के वृहद अपरिमिति ज्ञान कोष भण्डार
वेद ग्रंथों ,धर्म, साहित्य का सृजन प्रकृति के आँचल में कितना फला-फूला उसकी कल्पना अद्वितीय हैं किन्तु अब लगातार क्षीण होता बौध्दिक चेतन हमारी जीवनशैली को पशुवत बना रहा है।
धरतीमाता को इतना तेज ज्वार चढ़ा हुआ है कि वह अब हम संतानों को अमृतमय स्तनपान कराने में अक्षम प्रतीत हो रही हैं और इस स्थिति एवं.परिस्थिति के कर्ताधर्ता हम स्वयं हैं।।
प्रकृति का मानव के लिए
योगदान
प्रकृति ने हमेशा अपने गर्भ में विद्यमान विभिन्न रत्न भण्डारों यथा-जल,खनिज पदार्थ, जंगल इत्यादि के विभिन्न रूपों के माध्यम से मानवीय जीवन को पोषित किया किन्तु मानवीय महत्वाकांक्षा ने बढ़ते हुए समय के साथ प्रकृति के प्रति कृतघ्न होता गया जिसके परिणामस्वरूप आज पर्यावरण असंतुलन की स्थिति से जन्मी भीषण आपदाओं से संघर्ष कर रहा ।
भारतीय सनातन संस्कृति की बात ही करें तो हमारे धर्मग्रंथों में वृक्षों के अलग-अलग महत्व बतलाए गए हैं जिनका आयुर्वेद ग्रंथों में वृहद वर्णन मिलता है।
हमारे पूर्वज प्रकृति को लेकर कितने चिंतित थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम-नीम-पीपल जैसे वृक्षों को पुत्र एवं ईश्वर के रुप में स्वीकार कर पूजा की जाती रही है,इससे प्रकृति संतुलन तो बना ही रहता था इसके साथ ही सरस वायु एवं आत्मिक परिशुध्दता का बोध होता है जिससे समस्त प्रकार की व्याधियों से बचा जाता था।
तुलसी के पौधे में भगवान विष्णु का निवास होने से उसकी पूजा की जाती थी एवं हमारे देश के प्रत्येक घर के आँगन में पूजा स्थल पर लगा रहता था ।
जब वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर विश्लेषण किया गया तो यह पाया गया कि तुलसी में प्रचुर औषधीय गुण होते.हैं जिससे उसके आसपास का वातावरण परिशुध्द होता है,किन्तु समय के साथ ही अब तुलसी का पौधा भी घर-आँगन से लुप्त होने लगा है जो आने वाली समस्याओं का स्पष्ट संकेत है।
यद्यपि भारतीय सनातन संस्कृति का इतिहास लाखों करोड़ों वर्ष पुराना है किन्तु यदि हम वर्तमान में पाठ्यक्रम में सम्मिलित इतिहास की ओर देखते हैं तो
मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों में पीपल वृक्ष के चिन्ह प्राप्त हुए हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कालांतर में भी वृक्षों के संरक्षण एवं संवर्द्धन का कार्य किया जाता था ।
इसी तरह सनातन संस्कृति से जन्मे बौध्द एवं जैन धर्म दर्शन में भी वृक्षों को लाभकारी एवं संरक्षित करने की बातें मिलती हैं ।
इन बातों एवं तथ्यों के प्रस्तुतिकरण की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि शायद हमारी मानवीय चेतना जागृत हो जिससे प्रकृति के साथ लगातार हो रहे अवांछनीय मानवीय हस्ताक्षेप पर स्वचेतना से अंकुश लगाया जा सके।
लगातार खनिज पदार्थों के विदोहन के फलस्वरूप निरंतर समस्याएँ बढ़ रही हैं भूकंप,बाढ़ ,अनावृष्टि की आपदा से जूझता हुआ मानव समुदाय स्वयं के जीवन को लेकर भयक्रांत सा है लेकिन जैसे ही सुरक्षित आवरण में पहुंचता है इन सभी निष्कर्षों एवं बातों को भूल जाता है।
आधुनिकता ने बदला
पर्यावरण का मिज़ाज
आधुनिकता एवं औद्योगिकीकरण की अन्धी दौड़ में मनुष्य ने जिस तरह जल-जंगल एवं जमीन
को प्रदूषित किया है उससे जल संकट एवं स्वस्थ पर्यावरण का अभाव उत्पन्न हुआ और यह
दिन-प्रतिदिन भयावह विकराल स्वरूप को धारण करता जा रहा है।
हमारी आवश्यकताओं एवं सुविधाओं में लगातार इजाफा हो रहा लेकिन दूसरी ओर हम पर्यावरण एवं अपने आस-पास के वातावरण को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
नगरीकरण के लिए हम सभी कुछ इस कदर प्रयत्नशील हैं कि बड़े से बड़े जंगलों एवं वृक्ष समुदाय को एक झटके में जमींदोज कर देते हैं।
क्रांक्रीट के घरों के सुख एवं ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए न जाने कितने वृक्षों को बलि चढ़ाई जाती है उसके बाद ए.सी.,रेफ्रिजरेटर एवं विविध यंत्रों को लगाकर आनंद की अनुभूति करते हैं वहीं दूसरी ओर इन यंत्रों से लगातार निकलने वाली गैसें वायुमंडल के स्वरूप को विघटित कर रही हैं ,जिससे सूर्य के ताप में प्रतिवर्ष वृध्दि हो रही है और मानव जन जीवन झुलस रहा है।
जमीन से खनिज पदार्थों के दोहन एवं फैक्ट्रियों को स्थापित करने के लिए हजारों एकड़ जमीन एवं जंगलों को नष्ट कर दिया जाता है ,एक पल भी यह नहीं सोचा जाता कि इसके कितने भीषण दुष्परिणाम होंगे
वन्यजीवों एवं पशु-पक्षियों के जीवन का रखरखाव करने वाला कौन होगा?
स्वाभाविक है वन्यजीव मानव की बस्तियों की ओर भागेंगे और इसका जो परिणाम होगा उसकी भयावहता से मानवीय जीवन खतरें में पड़ जाएगा।
पर्यावरण को बाचाने के लिए
प्रयास और भविष्य की चुनौतियां
हमारे देश में वर्षों से पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण एवं पर्यावरण संवर्धन हेतु राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जब उनके कार्य परिणामों की ओर नजर जाती है तो वही ढाक के तीन पात दिखते हैं जिससे उनकी प्रासंगिकता लगभग नगण्य होती दिख रही है ।
यह एक कड़वा लेकिन सत्य है कि ज्यादातर ऐसी सभी संस्थाएँ केवल अपना कोरम पूर्ण करने के दिखावे के बाद धरातल पर शून्य हो जाते हैं ।
इन्हें चाहे विश्व पर्यावरण दिवस हो या ऐसे विशेष कई दिन केवल और केवल कभी मैराथन दौड़ तो कभी पौधरोपण का दिखावा कर समाचार की फाइल के साथ आय-व्यय संलग्न कर कागजी तौर पर पर्यावरण की उन्नति का श्रेय ले लेना है और इसके अलावा परिणाम विहीन ड्रामा करना होता है।
गाँवो से लेकर शहरों तक वर्तमान समय में पेयजल संकट मुँह फैलाए खड़ा हुआ
भू-गर्भ का जलस्तर लगातार नीचे जख रहा है एवं वर्षा की मात्रा में लगातार गिरावट आ रही है जिससे
आने वाले समय में भारत सहित विश्व में यह कितनी बड़ी गंभीर समस्या का रूप लेने वाला इस पर संगोष्ठियाँ एवं विश्व स्तर के शोधों के उपरांत कई बार चेतावनी दी गई है किन्तु हम अभी भी नहीं सुधरने वाले एवं इससे निजात पाने के लिए भविष्य को लेकर कोई भी रोडमैप तैयार करने के लिए उत्सुक नहीं दिख रहे बस उसी पगडंडी पर सरपट दौड़ते जा रहे हैं।
देश एवं प्रदेश सरकारें इस पर प्रभावी रणनीतियाँ बनाने में असफल एवं निष्क्रिय दिखती हैं,जबकि इस लापरवाही की सजा आने वाले समय में आगामी पीढ़ी को देखने को मिलेगी जब नई-नई विभिन्न बीमारियाँ अपने चंगुल में लेंगी और हम तब हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा कुछ भी कर पाने में सक्षम नहीं होंगे।
क्योंकि जिस तरह हमारे शरीर का तंत्र हैं उसी तरह प्रकृति तंत्र है और बीमारियों पर इलाज एवं पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है ,ठीक उसी तरह पृथ्वी माता के आवरण को हरा-भरा बनाने के लिए वृक्षारोपण एवं अवांछनीय हस्ताक्षेपों पर त्वरित रोकथाम की आवश्यकता है लेकिन इस पर औपचारिकता एवं दिखावे के अलावा संजीदगी न दिखाना हमारी प्रकृति के प्रति कृतघ्नता को दर्शाता है।
हमने देखा है सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर चालीस से पचास वर्ष की आयु के फलदार एवं छायादार वृक्षों को किस तरह सरकारी आदेशों की मुहर लगाकर निर्ममता से कत्ल किया गया लेकिन इस पर किसी ने दु:ख व्यक्त नहीं किया और तो और पर्यावरण के हितैषी होने का स्वांग रचने वाले समाजसेवी संगठन एवं शासकीय संस्थान भी इस पर अक्सर चुप्पी साधे दिखते हैं क्योंकि स्वार्थ एवं धन के लोभ के आगे जुबां कैसे खोली जा सकती है।
हालांकि प्रावधानों के हिसाब से पौधों के पुनरस्थापन एवं बदले में उसकी संख्या के कई गुने पौधे लगाने का नियम है किन्तु इस पर महज खानापूर्ति के अलावा और कुछ नहीं होते दिखता है।
न्यायालयीन प्रक्रिया की रफ्तार कछुए की चाल जैसी है तो जिस वजह से दोषियों पर कोई भी कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती है और वर्षों से छाया एवं प्राणवायु आक्सीजन देने वाले पौधे इमारती एवं जलाऊ लकड़ी बनकर मृत हो जाते हैं।
नदियों की कोख को उजाड़कर चौबीसों घण्टे जेसीबी से खुदाई कर रेत निकाली जा रही है
यह सब सत्ता के संरक्षण के बिना असंभव है और पर्यावरण का चिन्तन करने वाली सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं के अधिकारियों की मोटी कमाई का सबसे बड़ा जरिया है, जिसमें स्थानीय स्तर के पुलिस कर्मचारियों से लेकर उच्च ओहदों के महानुभावों के मुनाफे बकायदे प्रतिशत में तय होते हैं, और फिर धड़ल्ले से खुलेआम यह सब चलता रहता है।
सदानीरा और स्वच्छ निर्मल परम पावनी नदियां सूख रही हैं या प्रदूषण की वजह से अपने स्वरूप एवं गुणों को खो रही हैं।
गंगा ,यमुना ,नर्मदा एवं क्षिप्रा जैसी पवित्र नदियाँ जिन्हें माँ कहकर पुकारते हैं उनकी दुर्दशा देखकर अन्तरात्मा रोने लगती है कि आखिर!हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को प्रवाहित करने एवं जीवन को सरसता का बोध कराने वाली नदियां आज इस स्थिति में है।
इसे दुर्भाग्य की संज्ञा देना भी बेमानी होगा क्योंकि यह तो हम सभी के द्वारा किया गया अक्षम्य अपराध है, जिसके लिए प्रकृति अब दण्डित भी करने लग गई हैं क्योंकि
"अति सर्वत्र वर्जयेत" की सूक्ति अब चरितार्थ हो रही है।
माँ गंगा की सफाई के लिए गंगा मंत्रालय भी बना लेकिन परिणाम सबके सामने हैं कि कितना कार्य हुआ है।
शायद!सियासतदानों को कमाई का नज जरिए को बनाने की आदत है और इसी वजह से हम
प्रत्येक वर्ष नदियों के किनारों एवं मरूस्थलों, वनों की खाली जमीनों, बंजर भू क्षेत्रों में वृक्षारोपण के बड़े से बड़े प्रोजेक्ट लांच किए जाते हैं लेकिन इसके बाद कितने वृक्ष तैयार होते हैं यह सब किसी से नहीं छिपा है।
बढ़ते हुए तापमान की वजह से लगातार ग्लेशियर का पिघल रहे हैं और समुद्री जल भराव में वृध्दि होना भी एक व्यापक संकट का स्वरूप ही अख्तियार कर रहा है जिससे समुद्र तटीय क्षेत्रों में बसे हुए नगर एवं महानगर मृत्यु की शैय्या में ही खेल रहे हैं।
वर्तमान समय में जिस तरह ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोत्तरी हो रही और इसके जो परिणाम देखने को मिल रहे हैं, इससे तो साफ-साफ यह समझा जा सकता है कि मानव का अस्तित्व अब खतरे के निशान की ओर बढ़ रहा है जिसका संकेत प्रकृति कभी भूकम्प तो कभी बाढ़ -तूफान एवं भूस्खलन के तौर पर देती रहती है लेकिन हम अल्प समयावधि के उपरांत इसे भी भूल जाते हैं जबकि हमारा प्रभावी चिन्तन एवं कार्यान्वयन ही जीवन को सुरक्षित रखने की गारंटी दे सकता है।
पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धन को लेकर यदि सरकार द्वारा प्रभावी नीतियों के निर्माण एवं उनके कार्यान्वयन के प्रति जवाबदेही तय किए जाने के साथ-साथ व्यापक स्तर पर विश्लेषणात्मक तरीके से अपनी भूमिका निभाएँ।
साथ ही इस बात कि आवश्यकता है कि
इन अभियानो में
स्वप्रेरणा के साथ ही हम सभी आगे आकर बढ़चढ़कर वृक्षारोपण एवं अन्य पर्यावरण संरक्षण,
संवर्द्धन में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें
क्योंकि यदि हम वर्तमान में इसके प्रति सजग नहीं होंगे तो भविष्य अंधकारमय हो
जाएगा तब हम विकल्पहीन होकर अपने अपराधों की सजा भुगतेंगे।
लेखक- कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
रचना-स्वरचित, मौलिक