वैश्विक अर्थव्यवस्था
ड्रैगनजन्य वायरस कोरोना संक्रमण के कारण पूरा विश्व हलकान है, जनजीवन के साथ ही अर्थजगत भी लगभग पूरी तरह से चौपट होने के कगार पर है। चीन में उत्पन्न हुआ एक कोविड-19 नाम का वायरस अमेरिकी वैश्विकरण के माध्यम से विश्व के 207 देशों में अप्रैल तक फैल गया और पूरे विश्व को बेहद ही गहरे संकट में डाल दिया। कोरोना संकटकाल के बीच अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान बेहद भयभीत करने वाला है, जिसमें कहा गया है कि विश्व को वर्ष 1930 से भी बड़ी महामंदी का सामना करना पड़ सकता है।
वैश्विक अर्थजगत के परिदृश्य समझने को अतीत में झांकना होगा वर्तमान में ड्रैगनजन्य वायरस कोरोना संक्रमण के कारण वैश्विक अर्थजगत के परिदृश्य को समझने के लिए एक बार अतीत में झांकना पड़ेगा। सर्व विदित है कि बीसवीं सदी के प्रथम पहर में विभिन्न कारणों के चलते पूंजीवादी तंत्र के बिखरने से वर्ष 1930 में पूरे विश्व को महामंदी झेलनी पड़ी थी उसके परिणामस्वरुप उत्पन्न आर्थिक संकट के कारण बहुत देशों की शासन प्रणाली तक बदल गईं। भारत वर्ष 1947 में अंग्रेजी शासन से तो आज़ाद हो गया था, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सुनहरी इतिहास का एक खंडहर मात्र रह गई थी। हमारे देश में हरित क्रांति के तहत वर्ष 1966 में खाद्य सुरक्षा को मजबूत करने की कवायद की गई। वर्ष 1978 में हमारी अर्थव्यवस्था हमारे पड़ोसी चीन से बेहतर थी और वर्ष 1986 में उसके समानान्तर एक ट्रिलियन डॉलर, उसके बाद जो अन्तर बढ़ा वह समय के साथ बहुत ही अधिक हो गया। वर्ष 1991 में सोवियत संघ (यूएसएसआर) का विघटन हुआ, अमेरिका के लिए यह एक बेहद ही सुनहरा अवसर था। क्योंकि गुटनिरपेक्ष देशों का मुखिया भारत भी आर्थिक संकट से जूझ रहा था। इन परिस्थितियों में भारत ने भी मजबूरन अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया और अमेरिका अपना बाजारवाद कायम करने में सफल रहा। 1991 के भूमंडलीकरण के बाद हमारे देश की भी विकास दर में इजाफ़ा हुआ, 21वीं सदी आने के बाद भारत की विकास दर में बहुततेजी से इजाफ़ा होने लगा। 2008 में जब पूरा विश्व वैश्विक मंदी का सामना कर रहा था, उस वक्त भारत की विकास दर लगभग 8.6 प्रतिशत थी जो कि वर्तमान की विकास दर 4.7 प्रतिशत से बहुत अधिक थी, 2008 की वैश्विक मंदी तो आयी, लेकिन 1930 में आयी महामंदी के समक्ष बहुत तुच्छ साबित हुई।
एक बार फिर आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा है विश्व वर्ष 1930 में आई महामंदी के 90 साल पूरे होते ही विश्व एक बार फिर आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा है और उसकी वजह वैश्विक महामारी बनकर आया एक वायरस है जिसे कोविड-19 नाम दिया गया है। बीते साल यानी 2019 के दिसंबर महीने में चीन से शुरू हुए इस वायरस ने 2020 अप्रैल के आधे माह तक विश्व के 207 देशों को अपने प्रभाव में ले लिया है। विश्व के तमाम देशों ने इस महामारी से बचाव करने के लिये अपने यहाँ लॉकडाउन लगा दिया। जिसका सीधा प्रभाव उनकी खुद की एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। उद्योग एवं संस्थान भले ही सरकारों के दबाव में कुछ बोल नहीं पा रहे, लेकिन आगामी छह महीने उद्योग जगत एवं आमजन के लिये बेहद ही चुनौतीपूर्ण साबित होंगे।
अन्य देशों के मुक़ाबले भारत में जल्द ही समाप्त हो जायेगा संकट का यह दौर हालांकि अर्थजगत के विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में अन्य देशों के मुक़ाबले यह संकट का दौर जल्द ही समाप्त हो जायेगा। क्योंकि 2021 से 2030 तक हमारे देश की के विकास दर में इजाफ़ा होगा। भारत ने अपनी जीडीपी का 1 प्रतिशत कोरोना की महामारी से रोकथाम हेतु दिया है, जबकि अमेरिका और जर्मनी ने 10 प्रतिशत दिया है, अन्य यूरोपीय देशों ने भी लगभग 5 प्रतिशत दिया है। विश्व के देशों में भी विकास दर तब ही सर्वाधिक रही है जब उनके देश में युवा कामगारों की तादाद अधिक रही है।
यह है अर्थव्यवस्था का वर्तमान आंकड़ा हमारे देश की अर्थव्यवस्था वर्तमान में लगभग 2.91 ट्रिलियन डॉलर के पायदान पर है तो वहीं चीन की इकोनॉमी का आंकड़ा लगभग 13.64 ट्रिलियन डॉलर है और अमेरिका फिलहाल लगभग 21 ट्रिलियन डॉलर के साथ अव्वल नंबर पर है। बात यदि भारत के चीन से पिछड़ने की करें तो मुद्दे तो कई हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है कुशल श्रमिको का। चीन ने अपने उद्योगों को बढ़ावा देने से पहले अपने श्रमिकों को उक्त कार्यक्षेत्र में प्रशिक्षित किया फिर उनसे कार्य लिया, जबकि हमारे पास कार्यक्षेत्र के अनुसार प्रशिक्षित श्रमिक नहीं थे। समय के साथ सरकार ने योजनाएँ तो कई शुरू की गईं, लेकिन कामगारों को प्रशिक्षित करने का प्रबंध उचित वक्त पर नहीं किया जिसकी वजह से श्रमिक अपने कार्य को कम समय में संपादित करने में असमर्थ साबित हुए। वर्तमान की बात करें तो विगत करीब छह साल के दौरान हमारी सरकार का कौशल प्रशिक्षण पर खासा जोर रहा है, परिणाम स्वरूप कामगारों की कार्यकुशलता भी बढ़ी है।
सरकार केन्द्रित हो जायेगी वैश्विक अर्थव्यवस्था इन सबके मध्य एक बात तो स्पष्ट हो गयी है और वह यह है की अब वैश्विक अर्थव्यवस्था सरकार केन्द्रित हो जायेगी और कम से कम एक साल तक ग्लोबलाइजेशन देखने को मिलेगा, आयात प्रतिस्थापन पर बल दिया जाएगा। जिससे लाभ एवं हानि दोनों होंगे। भारत को आयात प्रतिस्थापन से ही नजदीक भविष्य में लाभ मिल सकता है। क्योंकि अब स्थानीय उद्योगों के निर्माण को बढ़ावा मिलेगा, उद्योगों की रक्षा हेतु कदम उठाये जायेंगे एवं रोजगार सृजन होगा जो कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
सरकार के फैसलों पर निर्भर करेगा बहुत कुछ वर्तमान समय में पर्यटन व्यापार में बहुत बड़ी कमी होगी, जिससे लाखों लोग प्रभावित होंगे। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में
लगभग 40 करोड़ लोग बेरोजगार होंगे ऐसे में सरकार कि इच्छाशक्ति और निर्णयों पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। क्योंकि भारत का लगभग 50 प्रतिशत व्यापार एमएसएमई सेक्टर से जुड़ा है और छोटे व्यापार बेहद ही संकट की स्थिति में हैं। आवश्यकता है कि सरकार मजबूत निर्णय लेते हुए बाजार को एक नई दिशा देने का काम करे। क्योंकि मेक इन इंडिया की महत्ता तभी प्रभावी होगी जब देश की कंपनियाँ अन्य देशों के अपेक्षा कम मूल्य पर जन उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करेंगी। विदेशी उत्पाद अगर भारत के बाजार में क़ाबिज़ हैं तो उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान उसके उत्पादों का है जो आमजन की जरूरत से जुड़े होने के साथ ही कम मूल्य में उपलब्ध होते हैं। भारतीय उद्योग जगत को अपने लाभ के साथ-साथ आमजन की जेब का भी ख्याल रखना होगा नहीं तो अगर यही स्थिति रही तो आने वाले एक दशक बाद कुछ क्षेत्र विशेष के भारतीय उद्योगों को खुद को जीवंत रखने के लिये संघर्ष करना पड़ जाएगा जैसा की खिलौना उद्योग एवं मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनियों को करना पड़ रहा है।
स्वदेशी अपनाने की है जरूरत सरकार के साथ ही इस संकट से बाहर निकालने में नागरिकों की भी अहम जिम्मेदारी होगी। भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारने के काम में हम देशवासियों को भी अपने राष्ट्रीय दायित्व का निर्वहन करते हुए स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देना होगा। तब कहीं जाकर सामूहिक प्रयासों ही कोरोना संक्रमण के चलते उत्पन्न अर्थसंकट से देश उबरने में कामयाब हो सकेगा।