कोरोनावायरस महामारी के
चलते विदेश में पढ़ाई करने का सपना देखने वाले छात्रों का भविष्य?
कोरोनावायरस महामारी के चलते विदेश में पढ़ाई करने का सपना देखने वाले
स्टूडेंट्स अब भारत में ही कॉलेज तलाश रहे हैं.
कोरोनावायरस की वजह से स्टूडेंट्स विदेश में पढ़ाई करने नहीं जा पा रहे
हैं.वहीँ तृप्ति लूथरा को कुछ महीने पहले ऑस्ट्रेलिया के डीकिन विश्वविद्यालय से
स्वीकृति पत्र मिलने के बाद ख़ुशी का ठिकाना नहीं था लेकिन अब कोरोना वायरस वैश्विक
महामारी के बारे में दुनियाभर से आ रही संक्रामक रोग की खबरों के कारण विदेश में पढ़ने
के उसके सपने पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं.तृप्ति लूथरा ऑस्ट्रेलिया में
डीकिन विश्वविद्यालय से वास्तुकला में मास्टर्स करना चाहती थी। और वो अपने लिए
कक्षाएं शुरू होने से पहले घर ढूंढने के साथ इंटर्नशिप तलाशने के लिए वहां जाना
चाहती थी। लेकिन अपनी स्नातक की परीक्षाएं खत्म होने का इंतजार कर रही थीं। लेकिन
अब लगता है कि वक्त ठहर गया है.''उसने कहा, ‘‘मैंने भारत के किसी कॉलेज में आवेदन नहीं किया था और आर्थिक
मंदी के कारण यहां नौकरी या इंटर्नशिप करने का विकल्प भी दूर की कौड़ी लग रहा है।
वहीँ श्री राम स्कूल की छात्रा तारा ओसान इटली या कनाडा में विज्ञापन की पढ़ाई
करना चाहती थी उनका मानना है कि आईबी पाठ्यक्रम चुनने वाले छात्र पहले ही विदेश
में पढ़ने की योजना बना लेते हैं. लेकिन अब विदेश में पढ़ना इस साल संभव नहीं लग
रहा है और अब प्लान बी तैयार करुंगी और यहां कॉलेजों में आवेदन करना शुरू करुंगी.'बहरहाल, कनाडा तथा इटली के कई
कॉलेजों से स्वीकृति पत्र प्राप्त कर चुकी थी। हालांकि, न्यूयॉर्क में लिबरल आर्ट्स की पढ़ाई करने की इच्छा रखने
वाली अनुष्का रे के लिए यह योजना पर अभी पूर्ण विराम नहीं लगा है। सितंबर से शुरू
हो रहे सत्र के लिए न्यूयॉर्क में पढ़ने की तैयारी करने वाली अनुष्का रे के लिए
ताजा घटनाक्रम मनोबल तोड़ने वाले हैं लेकिन इससे उसकी योजना नहीं डगमगाई है.दिल्ली
में स्टडी अब्रॉड कंसल्टेंसी चलाने वाले अनुपम सिन्हा ने पीटीआई-भाषा को बताया, ‘‘कई छात्रों को पहले ही दाखिला मिल गया है लेकिन अब कक्षाएं
ऑनलाइन होने और स्थिति के बारे में कोई स्पष्टता न होने से वे पुन: विचार कर रहे
हैं. अभी तक जो छात्र विदेश में रहना चाहते थे उन्हें सिर्फ ऑनलाइन कक्षाएं लेने
के लिए भारी भरकम फीस देना आकर्षक विकल्प नहीं लग रहा है.'''स्टडी अब्रॉड परामर्शकों के अनुसार, हालात गंभीर दिखते हैं और इसका कई लोगों की दीर्घकालीन
योजनाओं पर असर पड़ सकता है। दिल्ली में स्टडी अब्रॉड कंसल्टेंसी चलाने वाले अनुपम
सिन्हा ने पीटीआई-भाषा को बताया, ''कई छात्रों को पहले ही
दाखिला मिल गया है लेकिन अब कक्षाएं ऑनलाइन होने और स्थिति के बारे में कोई
स्पष्टता न होने से वे पुन: विचार कर रहे हैं। अभी तक जो छात्र विदेश में रहना
चाहते थे उन्हें सिर्फ ऑनलाइन कक्षाएं लेने के लिए भारी भरकम फीस देना आकर्षक
विकल्प नहीं लग रहा है। ऐसे कई छात्र हैं जिनकी विदेश में पढ़ाई करने की योजना
विभिन्न देशों में लागू किए गए लॉकडाउन के कारण या तो टूट गई है या उसमें देरी हो
गई है। कोविड-19 से पैदा हुई स्थिति के कारण दुनियाभर में
कक्षाएं और वीजा प्रक्रिया निलंबित कर दी
गई हैं। आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें कल का कोई पता
नहीं. अभी तो भय ने हमारे ज़हन पर क़ब्ज़ा कर रखा है. सामाजिक मेल जोल से दूर हम
सभी अपने अपने घरों में क़ैद हैं. ताकि नए कोरोना वायरस के संक्रमण की रफ़्तार
धीमी कर सकें. ऐसे में विदेश में पढाई का सपना देखने वालों के लिए संकट का समय है
जबकि इस समय विदेश के नागरिक अपने आप को भारत में ही सुरक्षित मान रहे हैं।
कोरोना वायरस के खौफ के बीच कुछ अमेरिकी लोग भारत में फंसने को सही मान रहे
हैं। इसकी मुख्य वजह से कोरोना द्वारा अमेरिका में मचाई गई तबाही है। पिछले हफ्ते
ऑस्ट्रेलिया ने अपने 444 लोगों को स्पेशल फ्लाइट
भेजकर भारत से एयरलिफ्ट कर लिया। लेकिन बहुत से देशों के लोग खासकर अमेरिका, वापस नहीं जाना चाहते।
बाकी सरकारों की तरह अमेरिकी प्रशासन भी दूसरे देशों में फंसे अपने लोगों को
निकाल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ऐसे 50 हजार लोगों को निकालने का दावा कर चुके हैं। इसी बीच
अमेरिकी प्रशासन ने इस बात की पुष्टि की थी कि कई नागरिकों ने फिलहाल भारत में ही
रुकने की इच्छा जताई है। जहां विदेश में फंसे लोगों को अपने घर जाने की जल्दी है।
वहीं अमेरिका के लोग भारत में ही रहना चाहते हैं। इसकी वजह अमेरिका में कोरोना की
तबाही है। (थैंक गॉड इंडिया में फंस गया)' इसके पीछे कोरोना की वजह
से अमेरिका में मची तबाही के बिच भारत की
स्थिति उससे बेहतर है। कोरोना वायरस दुनियाभर में तबाही मचा रहा है। इस बीच इंग्लैंड अपने लोगों को निकाल रहा है। इस हफ्ते
उनकी 12 और चार्टर फ्लाइट अमृतसर, नई दिल्ली, मुंबई, गोवा, चेन्नै, हैदराबाद, कोच्चि, बेंगलुरु, अहमदाबाद और कोलकाता
आएंगी। इससे पहले 20 हजार ब्रिटेन के लोग वापस अपने देश गए थे।
लॉकडाउन के कारण कई लोग घर में बैठे हैं ऐसे में आप अपने समय का सदुपयोग कर
सकते हैं आज हम जिस दौर से गुज़र
रहे हैं, उसमें कल का कोई पता नहीं. अभी तो भय ने हमारे
ज़हन पर क़ब्ज़ा कर रखा है. सामाजिक मेल जोल से दूर हम सभी अपने अपने घरों में
क़ैद हैं. ताकि नए कोरोना वायरस के संक्रमण की रफ़्तार धीमी कर सकें. इस दौरान
साहित्य हमारे एकाकीपन को दूर कर रहा है. वो हमें हक़ीक़ी दुनिया से दूर ले जा कर
राहत देता है. हमारा दोस्त बनता है. मगर, इस दौरान महामारी पर लिखी
गई किताबों की मांग भी ख़ूब बढ़ गई है. ऐसे कई उपन्यास हैं, जो महामारी के दौर की वास्तविकता के बेहद क़रीब हैं. जो
पहले की महामारियों की डायरी जैसे हैं. ऐसे उपन्यास हमें बताते हैं कि उस दौर में
लोग इस भयावाह आपदा से कैसे बाहर निकले. ब्रिटिश लेखक डेनियल डेफो ने वर्ष 1722 में किताब लिखी थी-ए जर्नल ऑफ़ द प्लेग ईयर. इसमें डेनियल
ने 1665 में ब्रिटेन की राजधानी लंदन में फैली प्लेग
की महामारी के बारे में विस्तार से लिखा है. ये भयावाह चित्रण उस दौर की हर घटना
का हिसाब किताब बताने जैसा है. और काफ़ी कुछ हमारे दौर में इस वायरस के प्रकोप से
मिलता जुलता है. डेनियल डेफो की किताब सितंबर 1664 से शुरू होती है. उस समय
अफ़वाह फैलती है कि ताऊन की वबा ने हॉलैंड पर हमला बोला है. इसके तीन महीने बाद, यानी दिसंबर 1664 में लंदन में पहली
संदिग्ध मौत की ख़बर मिलती है. बसंत के आते आते लंदन की तमाम चर्चों पर लोगों की
मौत के नोटिस में भारी इज़ाफ़ा हो जाता है. जुलाई 1665 के आते आते लंदन
में नए नियम लागू हो जाते हैं. ये नियम ठीक वैसे ही हैं, जो आज क़रीब चार सौ साल बाद हमारे ऊपर लॉकडाउन के नाम से
लगाए गए हैं. तब भी लंदन में सभी सार्वजनिक कार्यक्रम, बार में शराबनोशी, ढाबों पर खाना पीना और
सरायों में लोगों के जुटने पर पाबंदी लगा दी गई थी. और अखाड़ों और खुले स्टेडियम
भी बंद कर दिए गए थे. डेनियल डेफो लिखते हैं,
"लंदन वासियों के लिए
सबसे घातक बात तो ये थी कि बहुत से लोग लापरवाही से बाज़ नहीं आ रहे थे. वो गलियों
में घूमते थे. सामान ख़रीदने के लिए भीड़ लगा लेते थे. जबकि उन्हें घर में ही रहना
चाहिए था. हालांकि कई ऐसे लोग भी थे, जो इन नियमों का कड़ाई से
पालन करते हुए घरों में ही रहते थे." अगस्त का महीना आते-आते, "प्लेग ने बहुत हिंसक रूप धर लिया था. परिवार के परिवार, बस्तियों की बस्तियां इस महामारी ने निगल डाली थीं."
लेकिन, डेनियल डेफो के मुताबिक़, "दिसंबर 1665 के आते आते महामारी का
प्रकोप धीमा पड़ चुका था. अब हवा साफ़ और ठंडी थी. जो लोग बीमार पड़े थे, उनमें से कई ठीक हो गए थे. शहर की सेहत सुधरने लगी थी. जब
आख़िरी गली भी महामारी से मुक्त हो गई, तो लंदन के वासी सड़कों
पर निकले और ख़ुदा का शुक्र अदा किया." चार सौ बरस पहले आई महामारी का माहौल
आज से किस कदर मिलता है, ये कहने की बात नहीं. इस वक़्त
भी लगभग वैसा ही माहौल है. तनाव बढ़ा हुआ है. डेनियल डेफो की ही तरह अल्बर्ट कामू
ने भी महामारी का बखान बड़े ही कुदरती अंदाज़ में किया है. कामू ने अपनी किताब, 'द प्लेग' में अल्जीरिया के ओरां
शहर में आई प्लेग की महामारी का वर्णन किया है. उन्नीसवीं सदी में ओरां शहर, प्लेग के कारण वाक़ई उजड़ गया था. कामू के चित्रण में भी हम
आज की झलक देख सकते हैं. पहले तो स्थानीय नेता इस महामारी की आमद को मानने से
इनकार करते रहते हैं, जबकि कामू लिखते हैं कि, "शहरों की गलियों में मरे हुए चूहों की भरमार थी." उनके
उपन्यास में एक अख़बार का कॉलमनिगार सवाल उठाता है कि, "क्या हमारे शहर के मालिकान को इस बात का एहसास नहीं है कि
ये चूहे इंसानों के लिए कितना बड़ा ख़तरा हैं."
इस किताब के क़िस्सागो किरदार डॉक्टर बर्नार्ड, स्वास्थ्य
कर्मियों की बहादुरी के बारे में कहते हैं कि,"मुझे पता नहीं है कि मौत
किस पल में मेरा इंतज़ार कर रही है. और आख़िर में क्या होगा. अभी तो मैं बस यही
जानता हूं कि लोग बीमार हैं और उन्हें इलाज की ज़रूरत है." और आख़िर में इस
महामारी से बचे लोगों के लिए एक सबक़ भी है कि,
"उन्हें अब पता हो
गया है कि किसी भी मुश्किल दौर में सबसे अधिक ज़रूरी चीज़ होती है इंसान से प्यार
करना." 1918 में स्पेनिश फ्लू की महामारी ने भी दुनिया का
रंग रूप बदल डाला था. इस महामारी के चलते दुनिया भर में कम से कम पांच करोड़ लोग
मारे गए थे. जबकि इससे ठीक पहले हुए पहले विश्व युद्ध में एक करोड़ लोगों ने जान
गंवाई थी. मगर, युद्ध की नाटकीय घटनाओं ने इस महामारी के
प्रभाव को छुपा दिया था. पहले विश्व युद्ध पर तो अनगिनत उपन्यास लिखे गए. पर
स्पेनिश फ्लू की महामारी पर भी ढेर सारी किताबें लिखी गई थीं. आज लॉकडाउन की वजह
से लोग घरों में रह रहे हैं और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं. 1939 में ब्रिटिश लेखिका कैथरीन एन पोर्टर ने अपने उपन्यास 'पेल हॉर्स, पेल राइडर' में स्पेनिश फ्लू की महामारी का वर्णन किया है. पोर्टर के
उपन्यास की किरदार मिरांडा जब बीमार पड़ती हैं,
तो मिरांडा का
दोस्त एडम उन्हें बताता है कि, "ये बेहद बुरा दौर है. सभी
थिएटर, दुकानें और रेस्तरां बंद हैं. गलियों में से
दिन भर जनाज़े निकलते रहते हैं. रात भर एंबुलेंस दौड़ती रहती हैं." कैथरीन
पोर्टर, मिरांडा के,
बुखार और दवाओं
के ज़रिए हफ़्तों चली बीमारी के बारे में बताती हैं. जब वो ठीक होती हैं और बाहर
निकलती हैं तो देखती हैं कि दुनिया युद्ध और फ्लू के चलते किस क़दर बदल चुकी है.
ख़ुद कैथरीन भी स्पेनिश फ्लू की वजह से मरते मरते बची थीं. 1963 में द पेरिस रिव्यू को दिए इंटरव्यू में कैथरीन पोर्टर ने
बताया था कि, "मुझमें अजीब तरह का बदलाव आ गया था. मुझे फिर से
बाहर निकल कर लोगों से घुलने मिलने और ज़िंदगी बसर करने में बहुत समय लगया था. मैं
वाक़ई बाक़ी दुनिया से कट सी गई थी." इक्कीसवीं सदी की महामारियों जैसे कि 2002 में सार्स, 2012 में मर्स और 2014 में इबोला वायरस के प्रकोप ने भी वीरान शहरों, तबाह हुई ज़िंदगियों और आर्थिक मुश्किलों को बयां करने के
मौक़े दिए हैं.
मार्गरेट ऐटवुड ने 2009 में द ईयर ऑफ़ द फ्लड
नाम के उपन्यास में ऐसी दुनिया की कल्पना की है, जिसमें एक
महामारी के बाद इंसान कमोबेश ख़त्म हो जाते हैं. इसमें एक ऐसी महामारी का वर्णन है
जो बिना पानी वाली बाढ़ की तरह आती है. जो हवा में तैरते हुए शहर के शहर जला डालती
है. इस महामारी से जो गिने चुने लोग बचते हैं,
वो कितने तन्हा
हैं, इसका वर्ण मार्गरेट ऐटवुड ने बख़ूबी किया है.
टोबी नाम की एक मालिन है, जो वीरान से दिखने वाले
आसमान की ओर निहारते हुए सोचती है कि,
"कोई और तो ज़रूर
बचा होगा. इस धरती पर वो अकेली इंसान तो नह होगी. और लोग भी होंगे. लेकिन, वो दोस्त होंगे या फिर दुश्मन. अगर उसकी मुलाक़ात किसी से
होती है, तो वो क्या माने." इस उपन्यास की एक और
किरदार है रेन नाम की नर्तकी. वो इस वबा से इसलिए बच जाती है कि उसे किसी ग्राहक
से मिली बीमारी के चलते क्वारंटीन में रखा गया था. वो घर में बैठे हुए बार बार
अपना नाम लिखती रहती है. रेन कहती है कि,
"अगर आप बहुत
दिनों तक अकेले रहते हैं, तो आप भूल जाते हैं कि आप
असल में हैं कौन." ऐटवुड का उपन्यास फ्लैशबैक में भी जाता है. इस दौरान वो
बताती है कि किस तरह क़ुदरती और इंसानी दुनिया का संतुलन बिगड़ा. क्योंकि
सत्ताधारी कंपनियों ने बायो इंजीनियरिंग के ज़रिए क़ुदरत से छेड़खानी की थी. और
किस तरह टोबी जैसी पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध
किया था. यानी मार्गरेट ऐटवुड ने अपने उपन्यास को हक़ीक़त की बहुत ठोस बुनियाद पर
लिखा था. किसी भी महामारी पर आधारित क़िस्से इसलिए आकर्षित करते हैं क्योंकि इंसान
आपस मे मिल कर इनका सामना करते हैं. दुश्मन ऐसा होता है, जो इंसान नहीं होता. तब दुनिया में अच्छे या बुरे का फ़र्क़
मिट जाता है. हर किरदार के पास बचने का बराबर का मौक़ा होता है. ये एक तरह से
समाजवादी दुनिया हो जाती है.
चीनी मूल की अमरीकी लेखिका लिंग मा ने 2018 में 'सेवरेंस' नाम से उपन्यास लिखा था.
इसमें दूसरे देशों से आकर अमरीका में बसे लोगों की कहानी भी शामिल थी. जिसमें
कैडेंस चेन नाम की युवती, क़िस्से को आगे बढ़ाती
है. वो बाइबिल छापने वाली एक फर्म में नौकरी करती है. 2011 में न्यूयॉर्क पर हमला करने वाली काल्पनिक 'शेन फीवर' नाम की महामारी में केवल
नौ लोग बच पाते हैं. इनमें से एक कैडेंस भी शामिल होती है. लिंग मा लिखती हैं कि, "महामारी के बाद शहर का बुनियादी ढांचा तहस नहस हो चुका है.
इंटरनेट बर्बाद हो गया है. बिजली की ग्रिड भी बंद हो गई है." इसके बाद कैडेंस
चेन और बचे हुए बाक़ी के लोग शिकागो के उपनगरीय इलाक़े के एक मॉल की ओर रवाना होते
हैं. वो वहां जा कर बसने का इरादा रखते हैं. ये लोग जिस रास्ते से गुज़रते हैं वो
बीमारी और बुखार का शिकार नज़र आता है. मरते हुए लोग पुरानी आदतों के ही शिकार
हैं. कैडेंस और उसके साथी सोचते हैं कि वो वाक़ई इस महामारी के प्रति इम्यून हैं
या फिर बस दैवीय कृपा से बच गए हैं. कैडेंस को बाद में पता चलता है कि उसके बचने
का एक ही तरीक़ा है कि वो अपने ग्रुप के अगुवा बॉब के बनाए धार्मिक नियों का पालन
करते. बॉब एक पुराना आईटी प्रोफ़ेशनल है. बाद में कैडेंस, बॉब से बग़ावत कर देती है. लिंग मा ने अपने उपन्यास में
जैसे हालात की कल्पना की है, वैसे फिलहाल तो हमारे
सामने नहीं हैं. लेकिन, लिंग मा ने उस दुनिया का
भी तसव्वुर किया है, जब महामारी तबाही मचा कर चली जाती है. फिर समाज
के निर्माण की चुनौती खड़ी होती है. एक संस्कृति के विकास का प्रश्न उठता है. जो
लोग बचे हैं उनके बीच सत्ता किसके हाथ में होगी? किस धार्मिक
परंपरा को मानना है, ये कौन तय करेगा? कैसे लोगों की
निजता के अधिकार बचेंगे? इसी तरह एमिली सेंट जॉन
मंडेल के 2014 में आए उपन्यास स्टेशन इलेवन की कहानी है. एक
बेहद संक्रामक बीमारी जॉर्जिया नाम के गणराज्य से उठती है. ठीक वैसे ही जैसे कोई
न्यूट्रॉन बम फट गया हो. और इस महामारी से दुनिया की 99 फ़ीसद आबादी ख़त्म हो जाती है. इस महामारी की शुरुआत उस
समय होती है, जब शेक्सपीयर के नाटक किंग लीयर का एक किरदार
निभा रहे व्यक्ति को मंच पर ही दौरा पड़ता है. इसके बाद की कहानी, बीस साल बाद की है, जब उस व्यक्ति की पत्नी
स्टेशन इलेवन नाम की जगह पर नमूदार होती है. स्टेशन इलेवन के अन्य बचे हुए किरदार, ख़ाली पड़े शॉपिंग मॉल्स और छोटे शहरों में नाटक का मंचन
करते हैं. गा बजा कर लोगों का मनोरंजन करते हैं. कई अर्थों में स्टेशन इलेवन की
कहानी, चौदहवीं सदी के ब्रिटिश कवि चौसर की मशहूर या
बदनाम कहें, कैंटरबरी टेल्स से काफ़ी मिलती जुलती है. चौसर
की लिखी ये आख़िरी रचना थी, जिसमें चौदहवीं सदी में
यूरोप को बर्बाद करने वाली ब्लैक डेथ या प्लेग की बुनियाद पर लिखा गया था. एमिली
सेंट जॉन मंडेल सवाल उठाती हैं कि कौन तय करेगा कि कला क्या है? क्या सेलेब्रिटी का बर्ताव संस्कृति है? जब कोई वायरस, मानवता पर आक्रमण करता है, तो फिर नई संस्कृति का निर्माण कैसे होगा? पहले की कला और संस्कृति में क्या बदलाव आएंगे? इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे मौजूदा हालात पर भी
उपन्यासों की भूमिका तैयार हो रही होगी. आने वाले समय में क़िस्सागो किस तरह से इस
महामारी का वर्णन करेंगे? वो इंसानों के बीच की
सामुदायिक भावना को कैसे व्यक्त करेंगे? हमारे बीच के अनगिनत
बहादुर लोगों के बारे में क्या लिखेंगे? ये वो सवाल हैं, जो तब उठेंगे जब हम और पढ़ेंगे. साथ ही साथ इस महामारी के
बाद उभरने वाली नई दुनिया के लिए ख़ुद को तैयार करेंगे.