'दो विधान, दो निशान' के विरोध में बलिदान हो गए थे प्रखर राष्ट्रवादी विचारक, महान शिक्षाविद् और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
प्रखर राष्ट्रवादी विचारक, महान शिक्षाविद् और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी बेशक आज हमारे बीच नहीं हों, लेकिन देशवासियों की स्मृतियों में उनका महान व्यक्तित्व हमेशा जीवंत रहेगा। महान राष्ट्रभक्त के 119वें जन्मदिवस पर समर्थकों और अनुयायियों ने अखंड भारत के लिए लड़ने वाले श्यामा बाबू को पुष्पांजलि अर्पित की। यह अटल सत्य है कि डॉ. मुखर्जी को न केवल 6 जुलाई यानी जयंती और 23 जून को पुण्यतिथि पर ही याद किया जाएगा, बल्कि जब कभी भी राष्ट्रवाद की बात होगी, जम्मू-कश्मीर और धारा-370 का जिक्र आएगा तो देशवासी 'एक देश-एक विधान-एक निशान' के पक्षधर श्यामा बाबू का स्मरण हमेशा करेंगे।
राष्ट्रभक्ति, त्याग और समर्पण के अद्वितीय प्रतीक
डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रभक्ति, त्याग और समर्पण के अद्वितीय प्रतीक हैं। उनका पूरा जीवन भारत की एकता और अखंडता के लिए समर्पित रहा। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। उन्होंने कश्मीर में 'दो विधान, दो निशान' का जीवनभर डटकर विरोध किया। कश्मीर से परमिट राज समाप्त करने और उसे भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने के लिये उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी। केंद्र सरकार ने बीते साल पांच अगस्त को जम्मू कश्मीर से धारा-370 को समाप्त करके 'एक देश-एक विधान-एक निशान' के पक्षधर करोड़ों राष्ट्रवादियों के सपनों को साकार करने के साथ ही डॉ. मुखर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि देने का काम किया।
देश और अध्यात्म को समर्पित परिवार में हुआ था जन्म
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 कोलकाता के देश और अध्यात्म को समर्पित प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके परिजनों में बांग्ला भाषा के प्रति गहरी आसक्ति थी। उन्होंने प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर बीए पास किया। गोल्ड मेडल जीता, पर पिता ने कहा कि बांग्ला भाषा में एमए करो। डॉ.मुखर्जी ने अंग्रेजी के बजाए बांग्ला में एमए किया और उसमें भी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहे। वे भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी से बेहतर स्थान दिलाने के लिए हमेशा प्रयास करते रहे। डॉ. मुखर्जी का परिवार ही देशभक्ति और अध्यात्म को समर्पित था। उनके दादा गंगाप्रसाद मुखोपध्याय बंगाल के पहले ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने सम्पूर्ण रामायण का बंगला में अनुवाद किया जो काफी प्रसिद्ध हुआ। उनके पिता आशुतोष मुखर्जी विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ माने गए, जिनकी गणित पर शोध अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई गईं।
वकालत को नहीं बनाया अपना व्यवसाय
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी 23 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के बोर्ड के फैलो निर्वाचित हुए। 1926 में वे बैरिस्टरी की पढ़ाई को लंदन गए और 1927 में बैरिस्टर बनकर लौटे। उन्होंने कभी वकालत को अपना व्यवसाय नहीं बनाया। विद्वत्ता के कारण समाज में उनकी कीर्ति बहुत फैली। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाबोधि सोसायटी बोधगया के अध्यक्ष भी चुने गऐ। बुद्ध के पवित्र अवशेष जब तत्कालीन बर्मा से उथांट लेकर बोधगया आए तो उन अवशेषों को डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही ग्रहण किया था।
कलकत्ता और श्री अरविंद विश्वविद्यालय के बने कुलपति
वर्ष 1934 में वे तत्कालीन भारत के सबसे बड़े कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति चुने गए तथा 1938 तक अर्थात दो कार्यकाल इस पद पर निभाए। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय को नया रूप दिया। पहली बार बांग्ला भाषा में दीक्षांत भाषण कराया गया, उनके आमंत्रण पर यह दीक्षांत भाषण कवि गुरू रवींद्र नाथ ठाकुर ने दिया। श्यामा बाबू ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में कृषि की शिक्षा प्रारंभ की और कृषि में डिप्लोमा कोर्स प्रतिष्ठित किया। विशेष रूप से युवतियों की शिक्षा के लिए उन्होंने स्थानीय सहयोगियों से दान लेकर विशेष छात्रवृत्तियां प्रारंभ कीं। उनके नेतृत्व में कलकत्ता विश्वविद्यालय देश का ऐसा पहला विश्वविद्यालय बना जहां शिक्षक प्रशिक्षण विभाग खुला तथा चीनी और तिब्बती अध्ययन केंद्र खुले। श्री अरविंद विश्वविद्यालय का प्रथम कुलपति डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नामित किया गया। श्यामा बाबू बंगलौर में इंस्टीट्यूट ऑफ सांइस के भी अध्यक्ष रहे।
भारतीय ललित कला संग्रहालय किया स्थापित
डॉ.मुखर्जी ने अपने पिता आशुतोष मुखर्जी की याद में भारतीय ललित कला संग्रहालय स्थापित किया और केंद्रीय ग्रंथागार बनवाया जहां शोध और अध्ययन की आधुनिकतम सुविधाएं थीं। यही नहीं उन्होंने भारत में पहली बार बांग्ला, हिन्दी और उर्दू माध्यम में बीए के पाठ्यक्रम आरंभ किए तथा बांग्ला में विज्ञान विषय पढ़ाने के लिए वैज्ञानिक शब्दों का बांग्ला भाषा में शब्दकोश निकलवाया। डॉ. मुखर्जी ने विज्ञान की शिक्षा का समाज के विकास में क्या उपयोग होना चाहिए, इस बारे में शोध के लिए एप्लाईड केमिस्ट्री विभाग खोला ताकि विश्वविद्यालयीन शिक्षा को सीधे औद्योगिकीकरण से जोड़ा जा सके। उनकी विद्वत्ता और उनके गहरे ज्ञान के कारण देश के सभी प्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालय उन्हें दीक्षांत भाषण के लिए आमंत्रित करते थे। डॉ. मुखर्जी ने दिल्ली, पटना, आगरा और मैसूर विश्वविद्यालय सहित देश के शिखरस्थ 22 विश्वविद्यालयों में दीक्षांत भाषण दिए, उनका अंतिम दीक्षांत भाषण 1948 में दिल्ली विश्वविद्यालय में हुआ था।
पत्रकार, संपादक और प्रकाशक
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी न केवल शिक्षा और समाज के उत्थान के लिए ही उल्लेखनीय कार्य किए, बल्कि पत्रकारिता के जरिए भी देश सेवा करने का काम किया। श्यामा बाबू एक कुशल पत्रकार, संपादक और प्रकाशक भी थे। उन्होंने वर्ष 1944 में अंग्रेजी दैनिक 'दि नेशलिस्ट' का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। अपने इस समाचार पत्र के माध्यम से डॉ.मुखर्जी ने राष्ट्रवादी विचारों के प्रचार-प्रसार और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का काम किया। श्यामा बाबू ने हमेशा भारत में व्याप्त विभिन्न समस्याओं के मूल कारणों को जानने-समझने और उनके स्थायी समाधान करने पर बल दिया।
हिंदू महासभा के अध्यक्ष और जनसंघ के संस्थापक
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से क्षुब्ध होकर उनकी सरकार से अलग होने का फैसला किया औ वर्ष 1951 में भारतीय जन संघ की नींव रखी थी। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर केन्द्रित जन संघ और आज की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) डॉ. मुखर्जी की दूरदर्शिता का ही परिणाम है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश के ऐसे राजनेताओं में शुमार रहे जिनके जीवन का अधिकांश भाग समाज में शिक्षा, साहित्य, विज्ञान प्रसार तथा औद्योगिकीकरण के लिए समर्पित रहा। उन्होंने जीवन पर्यंत सामाजिक उत्थान, जन अधिकार की लड़ाई लड़ने के साथ ही राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए संघर्ष किया।
बंगाल अकाल में विराट स्तर पर किए राहत कार्य
वर्ष 1943 के भयंकर बंगाल अकाल में 30 लाख से अधिक भारतीय भूख से मर गए थे। कहा जाता है कि यह चर्चिल की कुटिल नीतियों के कारण मानव निर्मित अकाल था। उस समय श्यामा प्रसाद ने बहुत विराट स्तर पर राहत कार्य आयोजित किए। उन्होंने बंगाल के अकाल से संबंधित आर्थिक कारणों का विश्लेषण करते हुए प्रबंध प्रपत्र लिखा, वह अनेक प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों के शोध का हिस्सा बना।
जम्मू कश्मीर में धारा-370, अलग झण्डा और अलग संविधान के विरोध में दिया बलिदान
डॉ. मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाए जाने के पैरोकार थे। आजादी के बाद भारत में शामिल किए गए जम्मू कश्मीर में उस समय अलग झण्डा और अलग संविधान था, वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आजम) अर्थात प्रधानमन्त्री कहलाता था। श्यामा बाबू ने कश्मीर में अलग संविधान, ध्वज और प्रधानमंत्री का पुरजोर विरोध करते हुए जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने की मांग उठाई। इसके लिए उन्होंने एक देश में दो विधान, एक देशमें दो निशान, एक देश में दो प्रधान नहीं चलेंगे नहीं चलेंगे का नारा बुलंद किया। संसद में अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने 'एक देश-एक विधान-एक निशान' के उद्देश्य को लेकर अपना संकल्प व्यक्त किया था कि 'या तो मैं भारतीय संविधान के सभी अधिकार आपको प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा'। उन्होंने तत्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे।
नजरबन्दी के दौरान रहस्यमय परिस्थितियों में हुई थी डॉ. मुखर्जी की मृत्यु
एक देश-एक विधान-एक निशान के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए डॉ. मुखर्जी वर्ष 1953 में बिना परमिट लिए ही जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार करके नजरबन्द कर दिया गया। नजरबन्दी के दौरान ही 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।