वंदे मातरम्': अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग-ए-आजादी का प्रतीक
प्रख्यात उपन्यासकार एवं कवि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित गीत 'वंदे मातरम्' अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का प्रतीक बन गया था। बीती 27 जून को बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की 181वीं जयंती थी। साथ ही इस महीने देश की आजादी की 73वीं वर्षगांठ है। स्वतंत्रता पर्व के महीने में इस लेख के माध्यम से हमने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
राष्ट्रीय आंदोलन में बन गया था हथियार
आज जिस 'वंदे मातरम्' गीत के गायन को लेकर कुछ लोग बेवजह विवाद खड़ा करने पर आमादा हो जाते हैं, कभी यही गीत अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक राष्ट्रीय आंदोलन के तौर पर हथियार बन गया था। इस गीत की रचना बांग्ला के प्रख्यात उपन्यासकार एवं कवि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875-76 में बांग्ला और संस्कृत में की थी। बाद में सन 1885 में बंकिम चंद्र ने इस गीत को अपनी प्रसिद्ध कृति आनंदमठ में जोड़ दिया था।
ब्रिटिश हुक्मरानों के नियम के बाद लिखा था वंदे मातरम्
साल 1869 में उन्होंने कानून की डिग्री ली, जिसके बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्त हुए। कहा जाता है कि ब्रिटिश हुक्मरानों ने ब्रिटेन के गीत 'गॉड! सेव द क्वीन' को हर समारोह में गाना अनिवार्य कर दिया। इससे बंकिमचंद्र आहत थे। इसके बाद ही उन्होंने 1875-76 में एक गीत लिखा और उसे 'वंदे मातरम्' शीर्षक दिया।
प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री पाने वाले पहले भारतीय थे बंकिमचंद्र
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 27 जून 1838 को बंगाल के उत्तर चौबीस परगना के कंथलपाड़ा, नैहाटी में एक बंगाली परिवार में हुआ था। बंकिमचंद्र ने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1857 में बीए किया। यह वही साल था जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली बार भारतीय नागरिकों ने संगठित विद्रोह किया था। बंकिमचंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की डिग्री पाने वाले पहले भारतीय थे।
बंकिमचंद्र के जीवनकाल में 'वंदे मातरम्' गीत को नहीं हासिल हुई ज्यादा ख्याति
बंकिमचंद्र का निधन 08 अप्रैल 1894 में हुआ था। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के जीवनकाल में उनकी इस रचना यानी 'वंदे मातरम्' गीत को ज्यादा ख्याति नहीं हासिल हुई। हालांकि इस सच्चाई को कभी नहीं झुठलाया जा सकता कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह खान जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों ने 'वंदे मातरम्' गाते हुए ही फांसी का फंदा चूमा था।
'वंदे मातरम्' की गूंज से बौखला गई थी अंग्रेजी हुकूमत
सन 1905 में अंग्रेजी हुकूमत की ओर से बंगाल के बंटवारे के ऐलान के खिलाफ भारी जनाक्रोश पनपा जिसमें बंकिम बाबू रचित गीत 'वंदे मातरम्' के मुखड़े ने एक हथियार का काम किया। अंग्रेजी हुक्मरानों के खिलाफ 'वंदे मातरम्' का नारा पूरे बंगाल में फैल गया। समूचे बंगाल ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की। हिंदू-मुसलमान सबने एक सुर में 'वंदे मातरम्' का नारा बुलंद करते हुए अंग्रेजी हुक्मरानों की नींद हराम कर दी थी। इसी दौरान बारीसाल में किसान नेता मौहम्मद रसूल की अध्यक्षता में बंगाल कांग्रेस का प्रांतीय अधिवेशन में 'वंदे मातरम्' के गायन की गूंज से गुस्साई अंग्रेजी फौज ने नेताओं पर हमला बोल दिया। इस घटना ने आग में घी का काम किया और 'वंदे मातरम्' का नारा समूचे भारत में गूंजने लगा।
कांग्रेस अधिवेशन में गायन के बाद हुआ लोकप्रिय
बंकिम दा रचित 'वंदे मातरम्' का गायन पहले बारीसाल में हुए बंगाल कांग्रेस के प्रांतीय अधिवेशन और इसके बाद वाराणसी में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन में किए जाने के बाद यह गीत बेहद लोकप्रिय हो गया। बारीसाल में कांग्रेस के प्रांतीय अधिवेशन के बाद साल 1905 में यह गीत वाराणसी में आयोजित कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में गाया गया। थोड़े ही समय में यह गीत अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय क्रांति का प्रतीक बन गया।
रबीन्द्रनाथ टैगोर ने बनाई थी धुन
गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर ने 'वंदे मातरम्' की खूबसूरत धुन बनाई थी। यही नहीं पंजाब केसरी नाम से मशहूर प्रख्यात क्रांतिकारी लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल ने भी राष्ट्रवादी विचारों के प्रचार-प्रसार को 'वंदे मातरम्' नाम से पत्रिका का प्रकाशन किया था।
1950 में दिया गया राष्ट्रगीत का दर्जा
जंग-ए-आजादी में देशवासियों को फिरंगियों के खिलाफ एकजुट करने में अहम भूमिका निभाने वाले गीत 'वंदे मातरम्' को स्वतंत्रता के तीन साल बाद राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया था। 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिए जाने का ऐलान किया था।